शनिवार, नवंबर 11, 2023

मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है

 



कहते हैं, मुसीबत कैसी भी हो, जब आनी होती है-आती है और टल जाती है-लेकिन जाते जाते अपने निशान छोड़ जाती है.

इन निशानियों को बचपन से देखता आ रहा हूँ और खास तौर पर तब से-जब से गेस्ट हाऊसेस (विश्राम गॄहों)  और होटलों में ठहरने लगा. बाथरुम का शीशा हो या ड्रेसिंग टेबल का, उस पर बिन्दी चिपकी जरुर दिख जाती है. क्या वजह हो सकती है? कचरे का डब्बा बाजू में पड़ा है. नाली सामने है. लेकिन नहीं, हर चीज डब्बे मे डाल दी जायेगी या नाली में बहा देंगे पर बिन्दी, वो माथे से उतरी और आईने पर चिपकी. जाने आईने पर चिपका कर उसमें अपना चेहरा देखती हैं कि क्या करती हैं, मेरी समझ से परे रहा. यूँ भी मुझे तो बिन्दी लगानी नहीं है तो मुझे क्या? मगर एकाध बार बीच आईने पर चिपकी बिन्दी पर अपना माथा सेट करके देखा तो है, जस्ट उत्सुकतावश. देखकर बढ़िया लगा था. फोटो नहीं खींच पाया वरना दिखलाता.

यही तो मानव स्वभाव है कि जिस गली जाना नहीं, उसका भी अता पता जानने की बेताबी.

मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है, तो वैसे ही यह निशान भी. श्रृंगार, शिल्पा ब्राण्ड की छोटी छोटी बिन्दी से लेकर सुरेखा और सिंदुर ब्राण्ड की बड़ी बिन्दियाँ. सब का अंतिम मुकाम- माथे से उतर कर आईने पर.

कुछ बड़ी साईज़ की मुसीबतें,  बतौर निशानी, अक्सर बालों में फंसाने वाली चिमटी भी बिस्तर के साईड टेबल पर या बाथरुम के आईने के सामने वाली प्लेट पर छोड़ दी जाती हैं. इस निशानी की मुझे बड़ी तलाश रहती है. नये जमाने की लड़कियाँ तो अब वो चिमटी लगाती नहीं, अब तो प्लास्टिक और प्लेट वाली चुटपुट फैशनेबल हेयरक्लिपस का जमाना आ गया मगर कान खोदने एवं कुरेदने के लिए उससे मुफ़ीद औजार मुझे आज तक दुनिया में कोई नजर नहीं आया. चाहें लाख ईयर बड से सफाई कर लो, मगर एक आँख बंद कर कान कुरेदने का जो नैसर्गिक आनन्द उस चिमटी से है वो इन ईयर बडस में कहाँ?

औजार के नाम पर एक और औजार जिसे मैं बहुत मिस करता हूँ वो है पुराने स्वरूप वाला टूथब्रश ... नये जमाने के कारण बदला टूथब्रश का स्वरुप. आजकल के कोलगेटिया फेशनेबल टूथब्रशों में वो बात कहाँ? आजकल के टूथब्रश तो मानो बस टूथ ब्रश ही करने आये हों, और किसी काम के नहीं. स्पेशलाईजेशन और विशेष योग्यताओं के इस जमाने में जो हाल नये कर्मचारियों का है, वो ही इस ब्रश का. हरफनमौलाओं का जमाना तो लगता है बीते समय की बात हो, फिर चाहे फील्ड कोई सा भी क्यूँ न हो.

बचपन में जो टूथब्रश लाते थे, उसके पीछे एक छेद हुआ करता था जिसमें जीभी (टंग क्लीनर) बांध कर रखी जाती थी. ब्रश के संपूर्ण इस्तेमाल के बाद, यानि जब वह दांत साफ करने लायक न रह जाये तो उसके ब्रश वाले हिस्से से पीतल या ब्रासो की मूर्तियों की घिसाई ..फिर इन सारे इस्तेमालों आदि के हो जाने के उपरान्त जहाँ ब्रश के स्थान पर मात्र ठूंठ बचे रह जाते थे, ब्रश वाला हिस्सा तोड़कर उसे पायजामें में नाड़ा डालने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. नाड़ा डालने के लिए उससे सटीक और सुविधाजनक औजार भी मैने और कोई नहीं देखा.

जिस भी होटल या गेस्ट हाऊस के बाथरुम के या ड्रेसिंग टेबल के आईने पर मुझे बिन्दी चिपकी नजर आती है, मेरी नजर तुरंत बाथरुम के आईने के सामने की पट्टी पर और बिस्तर के बाजू की टेबल पर या उसके पहले ड्राअर के भीतर जा कर उस चिमटी को तलाशती है जो कभी किसी महिला के केशों का सहारा थी, उसे हवा के थपेड़ों में भी सजाया संवारा रखती थी. खैर, सहारा देने वालों की, जिन्दगी के थपेड़ों से बचाने वालों की सदा से ही यही दुर्गति होती आई है चाहे वो फिर बूढ़े़ मां बाप ही क्यूँ न हो. ऐसे में इस चिमटी की क्या बिसात मगर उसके दिखते ही मेरे कानों में एक गुलाबी खुजली सी होने लगती है.

बदलते वक्त के साथ और भी कितने बदलाव यह पीढ़ी अपने दृष्टाभाव से सहेजे साथ लिये चली जायेगी, जिसका आने वाली पीढ़ियों को भान भी न होगा.

अब न तो दाढ़ी बनाने की वो टोपाज़ की ब्लेड आती है जिसे चार दिशाओं से बदल बदल कर इस्तेमाल किया जाता था और फिर दाढ़ी बनाने की सक्षमता खो देने के बाद उसी से नाखून और पैन्सिल बनाई जाती थी. आज जिलेट और एक्सेल की ब्लेडस ने जहाँ उन पुरानी ब्लेडों को प्रचलन के बाहर किया , वहीं स्टाईलिश नेलकटर और पेन्सिल शार्पनर का बाजार उनकी याद भी नहीं आने देता है. तब ऐसे में आने वाली पीढ़ी क्यों इन्हें इनके मुख्य उपयोगों और अन्य उपयोगों के लिए याद करे, उसकी जरुरत भी नहीं शेष रह जाती है.

फिर मुझे याद आता है वह समय, जब नारियल की जटाओं और राख से घिस घिस कर बरतन मांजे जाते थे. आज गैस के चूल्हे में न तो खाना पकने के बाद राख बचती है और न ही स्पन्ज, ब्रश के साथ विम और डिश क्लीनिंग लिक्विड के जमाने में उनकी जरुरत. स्वभाविक है उन वस्तुओं को भूला दिया जाना.

सब भूला दिया जाता है. हम खुद ही भूल बैठे हैं कि हमारे पूर्वज बंदर थे जबकि आज भी कितने ही लोगों की हरकतों में उन जीन्स का प्राचुर्य है. तो यह सारे औजार भी भूला ही दिये जायेंगे, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं.

अंतर बस इतना ही है कि आज अल्प बचत का सिद्धांत पढ़ाना होता है जो कि पहले आदत का हिस्सा होता था.

अल्प बचत मात्र थोड़े थोड़े पैसे जमा करने का नाम नहीं बल्कि छोटे छोटे खर्चे बचाने का नाम भी है.

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार नवम्बर 12, 2023  के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/8174

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रविवार, अक्तूबर 22, 2023

अजब हाल है मेरे दिल की खुशी का

 

इधर कुछ दिनों से खाली समय में किताबों में डूबा हूँ. न लिख पाने के लिए एक बेहतरीन आड़ कि अभी पढ़ने में व्यस्त हूँ.

हाथ में आई पैड है और उस पर खुली है “शान्ताराम”. नाम से तो शुद्ध हिन्दी तो क्या, मराठी की किताब लगती है मगर है अंग्रेजी में. ईबुक के हिसाब से १७०० पन्नों की है और पढ़ते हुए अब तक लगभग २५० पन्नों के पार आ पाया हूँ मैं.

शायद २५० पन्ने शुरुआत ही है. अभी अभी नामकरण हुआ है न्यूजीलैण्ड के लिन का (जो मुंबई में आकर लिनबाबा हुआ), लिनबाबा से “शान्ताराम”. बहुत चाव से लिन अपने नये नाम शान्ताराम को महाराष्ट्र के एक गांव में आत्मसात कर रहा है जिसका अर्थ है शान्ति का प्रतीक और मैं अब जब शान्ताराम के मुंबई प्रवास और फिर रेल और राज्य परिवहन की बस में सुन्दर गांव की यात्रा को पढ़ रहा हूँ तो अपने मुंबई के ५ वर्षीय प्रवास और अनेक बस और रेल यात्राओं की याद में डूब पुस्तक से इतर न जाने किस दुनिया में खो जाता हूँ. पठन रुक रुक कर चलता है मगर रुकन में भी जीवंतता है. एकदम जिन्दा ठहराव...लहराता हुआ- बल खाता हुआ एक इठलाती नदी के प्रवाह सा- जिसके बहाव में भी नजरों का ठहराव है.

ऐसे लेखकों को पढ़कर लगता है कि कितना थमकर लिखते हैं हर मौके पर- हर दृष्य और वृतांत को इतना जिन्दा करते हुए कि अगर फूल का महकना लिखेंगे तो ऐसा कि आप तक उस फूल की महक आने लगती हैं. माहौल महक उठता है.

नित पढ़ते हुए कुछ गाना सुनते रहने की आदत भी लगी हुई है. अक्सर तो यह कमान फरीदा खानम, आबीदा परवीन, नूरजहां, मुन्नी बेगम, मेंहदी हसन, बड़े गुलाम अली खां साहब आदि संभाले रहते हैं- एक अपनापन सा अहसासते हुए जी भर कर सुनाते हैं अपने कलाम.

आज मन था सुनने का तो सोचा कि औरों को मौका न देने से कहीं जालिम न कहलाया जाऊँ. तो आज इन पहुँचे हुए नामों को आराम देने की ठानी और मौका दिया सबा बलरामपुरी को. सबा ने भी उसी तरह अपनेपन से मुस्कराते हुए अपने दिलकश अन्दाज में सुनाया:

अजब हाल है मेरे दिल की खुशी का

हुआ है करम मुझ पे जब से किसी का

मुहब्बत मेरी ये दुआ मांगती है

कि तेरे साथ तय हो सफर जिन्दगी का...

 

सबा की आवाज की खनक, अजीब सी एक बेचैनी, एक कसक और कसमसाहट के साथ ही उसकी लेखनी मुझे खींच कर ले गई उस अपनी जिन्दगी की खुशनुमा वादी में..जहाँ शायद भाव यूँ ही गुनगुनाये थे मगर शब्द कहाँ थे तब मेरे पास. न ही सबा की लेखनी की वो बेसाखियाँ हासिल थी उस वक्त....जिसकी मल्लिका सबा निकली. वो यादें तो मेरी थीं और हैं भी. उन पर सबा का कोई अधिकार नहीं तो उनमें डूबा मैं तैरता रहा मैं हर पल तुम्हें याद करता...गुनगुनाता:

मुहब्बत मेरी ये दुआ मांगती है

कि तेरे साथ तय हो सफर जिन्दगी का...

दुआएँ यूँ कहाँ सब की पूरी होती हैं. मेरी न हुई तो कोई अजूबा नहीं. अजूबा तो दुआओं के पूरा होने पर होता है अबकी दुनिया में. मानों खुशी के पल खुशनसीबी हो और दुख तो लाजिमी हैं.

मैं सोचता ही रहा और फिर डूब गया शान्ताराम की कहानी में, जो भाग रहा था डर कर कि सुन्दर गांव में नदी का स्तर मानसून में एकाएक बढ़ रहा है और शायद गांव डूब ही न जाये. वो गांव के निवासियों को जब सचेत करता है तो सारे गांव वाले हँसते हैं उसकी सोच पर. सब निश्चिंत हैं कि आज तक वो नदी इतना बढ़ी ही नहीं कि गांव डूब जाये. उन्हें वो स्तर भी मालूम था कि जहाँ तक नदी ज्यादा से ज्यादा बढ़ सकती है.

न्यूजीलैण्ड में रहते भी शान्ताराम को ऐसे किसी विज्ञान का ज्ञान ही नहीं हो सका जो ऐतिहासिक आधार पर ऐसा कुछ निर्णय निकाल पाये. भारत की स्थापित न जाने कितनी मान्यताओं के आगे विज्ञान यूँ भी हमेशा बौना और पानी ही भरता नजर आया है और इस बार भी पानी उस स्तर के उपर न जा पाया. लिनबाबा उर्फ शान्ताराम नतमस्तक है उन भारतीय मान्यताओं के आगे. मैं तो खुद ही नतमस्तक था. उसी भूमि पर पैदा हुआ था तो मुझे कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ...

सबा है कि छोटे छोटे मिसरे सरल शब्दों मे बहर में गाये जा रही है:

मेरा दिल न तोड़ो जरा इतना सोचो

मुनासिब नहीं तोड़ना दिल किसी का...

तुम्हें अब तरस मुझपे आया तो क्या है

भरोसा नहीं अब कोई जिन्दगी का..

छा गई सबा और उसकी आवाज दिलो दिमाग पर...याद आ गया बरसों बाद उस दिन तुम्हारा मुझको अपने फेस बुक की मित्रों की सूची में शामिल करना इस संदेश के साथ: “हे बड्डी, ग्रेट टू सी यू हियर..रीयली लाँग टाईम..काइन्ड ऑफ पॉज़.... वाह्टस अप- हाउज़ लाईफ ट्रीटिंग यू-होप आल ईज़ वेल”

 

हूँ ह...पॉज कि रीस्टार्ट आफ्टर ए फुल स्टॉप? नो आईडिया!!!

भूल ही चुका था मैं यूँ तो अपनी दैनिक साधारण सी बहती हुई जिन्दगी में..कभी ज्वार आये भी तो उससे उबर जाना सीख ही गया था स्वतः ही..जिन्दगी सब सिखा देती है..यही तो खूबी है जिन्दगी में...जिसके कारण दुनिया पूजती है इसे..कायल है इसकी. मन कर रहा है कि फेस बुक में तुम्हारी वाल पर जाकर सबा की ही पंक्तियाँ लिख दूँ और थैंक्यू कह दूँ सबा को मुझे रेस्क्यू करने के लिए...बचाने के लिए:

तुम्हें अब तरस मुझपे आया तो क्या है

भरोसा नहीं अब कोई जिन्दगी का..

जाने क्या सोच रुक जाता हूँ और बिना कोशिश हाथ आँख पोंछने बढ़ जाते हैं. आँख और हाथ का भी यह अजब रिश्ता आज भी समझ के बाहर है मगर है तो एक रिश्ता. ...अनजाना सा..अबूझा सा,,,हाथ आँखों को नम पाता है..शायद सबा को सुन रहा होगा वो भी मेरे साथ:

अभी आप वाकिफ नहीं दोस्ती से

न इजहार फरमाईये दोस्ती का...

शायद आप तो क्या, हम भी कभी अब वाकिफ न हो पायेंगे. वक्त जो गुजरना था...गुजर गया. बेहतर है मिट्टी डालें उस पर. मगर हमेशा बेहतर ही हो तो जिन्दगी सरल न हो जाये? जिन्दगी तो जूझने का नाम है ऐसा बुजुर्गवार कह गये हैं. गालिब भी कहते थे तो हम क्या और किस खेत की मूली हैं...

शान्ताराम जूझ रहा है..एक भगोड़ा..जिसकी तलाश है न्यूजीलैण्ड की पुलिस को. जमीन छूट जाने की कसक उसे भी है और मजबूरी यह है की कि कैद उसे मंजूर नहीं. कैद की यातना से भागा है..एक आजाद सांस लेने..वो किसे नसीब है भला जीते जी..जमीन की खुशबू से कौन मुक्त हुआ है भला...रिश्तों की गर्माहट को कैसे छोड़ सकता है कोई...बुलाते हैं वो रिश्ते और महक के थपेड़े....खींचते है वो...

सोचता हूँ हालात तो मेरे भी वो ही हैं...मुझे तो कैद का भी डर नहीं...फिर क्यूँ नहीं लौट पाता हूँ मैं..उस मिट्टी की सौंधी खुशबू के पास..अपने रिश्तों की गरमाहट के बीच...उस मधुवन में...क्या मजबूरी है...जाने क्या...सोच के परे रुका हूँ इस पार....एक अनसुलझ उधेड़बून में...अबूझ पहेली को सुलझाता....

सबा कह रही है:

बुरा हाल है ये तेरी जिन्दगी का...

-समीर लाल “समीर”

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अक्टूबर 22 , 2023  के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/7719

 


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रविवार, अक्तूबर 15, 2023

बस!! जरा जाग कर तो देखो।

इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं

जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं..

गधे हँस रहे, आदमी रो रहा है

हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है..

जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है

जो माइक पे चीखे वो असली गधा है..

इन पंक्तियों के रचयिता ओम प्रकाश आदित्य तो अब रहे नहीं।  मगर यह कविता कालजयी है। अकसर तो कविताएं कालजयी अपने बलबूते पर होती हैं मगर इसके कालजयी होने में हमारे नेताओं का बहुत बड़ा योगदान है।

आज की शाम में हुई चुनावी बयान बाजी ने इन पंक्तियों की याद ताजा की जब उसमें गधों का जिक्र आया। गधों के बीच भी जब तक गधों का जिक्र न आये तब तक गधा भी गधा नहीं होता बल्कि इन्सान सा नजर आता है। गधा गधे को गधा कहकर यह समझ रहा है उसने अगले को अपमानित कर डाला यह अपने आप में कितने अचरज की बात है और ऐसा सिर्फ सीसे वाले गधे ही कर सकते हैं। बताते चलें कि यह असल गधों का स्वभाव नहीं, इन्सानों का स्वभाव है जो अपने कर्मों से गधों से बराबरी करने निकाल पड़े हैं।

गधों की भी कई नस्लें होती हैं। उनमें से एक नस्ल होती है जिसे जुमेराती कहते हैं। जुमेराती गधा – अपने आप में अनोखा। मात्र इस नस्ल को लेकर भगवान और खुदा दोनों एकमत हुए होंगे शायद कभी और तब दोनों ने मिल कर सिर्फ इस नस्ल को यह वरदान दिया होगा कि वो शोहरत और बेइज्जती के बीच के अंतर को कभी न समझ पाएंगे और जूते और फूल की माला, दोनों ही उनके लिए एक समान होगी। वो दोनों से ही अपने आपको सम्मानित महसूस करेंगे। करेंगे क्या, करते ही हैं।

अतः ये वाली सारी नस्ल, जिसे जुमेराती के नाम से जाना गया, अपनी मोटी चमड़ी और मोटी बुद्धि के साथ संसद के दोनों सदनों और विधानसभाओं से लेकर अनेक निर्णायक स्थानों पर जनता की उदासीनता के चलते विराजमान है, इन्हें इन्सानों से अलग पहचान देने हेतु नेता पुकारा गया है। दिखने में इन्हें इन्सान सा दिखने का वरदान भी मिल कर ही दिया है भगवान और खुदा ने। इसके बाद भगवान और खुदा फिर कभी नहीं मिले, ऐसा शास्त्र और कुरान दोनों बताते हैं। इसके बाद दोनों एक दूसरे को अलविदा कह गये, अतः बाकी के सारे गधे धोबी के साथ साथ घाट घाट घूम रहे हैं और आम इन्सान तो खैर हर घट का पानी पिये अपने जुमेराती गधा न हो पाने के मातम में डूबा ही है।

यह भी मुझे एक ऐसे ही नेता ने बताया है और मैंने जैसा की आम जनता की आदत होती है, उसकी बात को सच मान कर यहाँ प्रस्तुत भी कर दिया है।

बस आज आगाह करने को मन किया कि अगर ईश्वर कभी आपको गधा बनाये तो प्रार्थना करना कि जुमेराती ही बनाये..इत्ती सी च्वाईस तो मिलती ही है जब पुनर्जन्म होता है। अगर न मिलती हो तो भाईयों बहनों, मिलनी चिए कि नहीं मिलनी चिए? मिलनी चिए कि नहीं मिलनी चिए? पुनर्जन्म में तो हर मजहब भरोसा धरता है, अतः इस वक्तव्य में सेक्यूलरवाद की महक न आनी चाहिए किसी को। मगर लोगों को पता ही नहीं होता, अतः वो बस यूं ही मायूस हो कर कह देते हैं कि अब गधा बना ही रहे हो तो कोई सा भी बना दो। गधा तो गधा ही होता है। कितना मासूम है ये इंसान – शायद इसीलिए लुटा पिटा सा है।

याद रखना इस मायूसी और मासूमियत का अंजाम- फिर वही धोबी मिलेगा तुमको - .घाट घाट घुमाने को। .संसद के सपने बस सपने में ही आएंगे।

जागो और मांगो अपने जुमेराती होने के अधिकार को – कल को तुम भी चाय बेच सकते हो – कल को तुम भी देश बेच सकते हो। सब संभव है- संभव तो यह भी है कि देश को बिकने से बचा जाओ। बस!! जरा जाग कर तो देखो। कितनी उम्मीदें हैं तुमसे और तुम हो कि सो रहे हो!!

यह आलेख इस हेतु यहाँ लिखा कि जान जाओ और जाग जाओ :)

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अकतूबर 16, 2023  के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/7572


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रविवार, सितंबर 03, 2023

तारीखें क्या थीं.....चलो!!! तुम बताओ!!

 

वो दूर से भागता हुआ आया था इतनी सुबह...शायर की भाषा में अल सुबह और गर मैं कहूँ तो कहूँगा सुबह तो इसे क्या..क्यूँकि अभी तो रात की गिरी ओस मिली भी नहीं थी उस उगने को तैयार होते सूरज की किरणों से...विलिन हो जाने को उसके भीतर- खो देने को अपना अस्तित्व उसकी विराटता में समाहित हो कर खुशी खुशी.

देखा था मैने कि वो हांफ रहा था मगर कोशिश थी कि सामान्य नज़र आये और कोई सुन भी न पाये उसकी हंफाई.... दिखी थी मुझे ....उसकी दोनों मुठ्ठियाँ भिंची हुई थी और चेहरे पर एक विजयी मुस्कान......एक दिव्य मुस्कान सी शायद अगर मेरी सोच के परे किसी भी और परिपेक्ष्य में उसे लिया जाये तो...मगर मुझे वो उसकी वो मुस्कान एक झेंपी सी मुस्कान लगी.. जब मैने उससे कहा कि क्या ले आये हो इस मुठ्ठी में बंद कर के ..जरा मुट्ठी तो खोलो...अभी तो सूरज भी आँख ही मल रहा है और तुम भागते हुए इतनी दूर से जाने क्या बंद कर लाये हो इन छोटी सी मुट्ठियों में...मुझे मालूम है कि कुछ अनजगे सपने होंगे सुबह जागने को आतुर-इस सोच के साथ कि शायद सच हो जायें.,..दिखाओ न...हम भी तो देखें...

खोल दो न अपनी मुट्ठी......

वो फिर झेंपा और धीरे से...कुछ सकुचाते हुए...कुछ शरमाते हुए..आखिर खोल ही दिये अपनी दोनों मुठ्ठियाँ में भरे वो अनजगे सपने… मेरे सामने...और वो सपने आँख मलते अकबका कर जागे.. मुझे दिखा कुछ खून......सूर्ख लाल खून.. उसकी कोमल हथेलियों से रिसता हुआ और छोटे छोटे ढेर सारे काँटे गुलाब के..छितराये हुए उन नाजुक हथेलियों पर..कुछ चुभे हुए तो कुछ बिखरे बिखरे हुए से....न चुभ पाने से उदास...मायूस...

-अरे, ये क्या?- इन्हें क्यूँ ले आये हो मेरे पास? मुझे तो गुलाब पसंद हैं और तुम ..ये काँटे  .. ये कैसा मजाक है? मैं भला इन काँटों का क्या करुँगी? और ये खून?...तुम जानते हो न...मुझे खून देखना पसंद नहीं है..खून देखना मुझे बर्दाश्त नहीं होता...लहु का वो लाल रंग...एक बेहोशॊ सी छा जाती है मुझ पर..

यह लाल रंग..याद दिलाता है मुझे उस सिंदूर की...जो पोंछा गया था बिना उसकी किसी गल्ती के...उसके आदमी के अतिशय शराब पीकर लीवर से दुश्मनी भजा लेने की एवज में...उस जलती चिता के सामने...समाज से डायन का दर्जा प्राप्त करते..समाज की नजर में जो निगल गई थी अपने पति को.....बस!! एक पुरुष प्रधान समाज...यूँ लांछित करता है अबला को..उफ्फ!

तुम कहते कि मुझे पता है कि खून तुमसे बर्दाश्त नहीं होता मगर तुम्हारी पसंद वो सुर्ख लाल गुलाब है. मै नहीं चाहता कि तुम्हें वो जरा भी बासी मिले तो चलो मेरे साथ अब और तोड़ लो ताज़ा ताज़ा उस गुलाब को ..एकदम उसकी लाल सुर्खियत के साथ...बिना कोई रंगत खोये...

बस, इस कोशिश में तुम्हे कोई काँटा न चुभे  .तुम्हारी ऊँगली से खून न बहे..वरना कैसे बर्दाश्त कर पाओगी तुम...और तुम कर भी लो तो मैं..

बस यही एक कोशिश रही है मेरी..कि... मेरा खून जो रिसा है हथेली से मेरी...वो रखेगा उस गुलाब का रंग..सुर्ख लाल...जो पसंद है तुम्हें..ओ मेरी पाकीज़ा गज़ल!!

बस. मत देख इस खून को जो रिसा है मेरी हथेली से लाल रंग का.....और बरकरार रख मुझसे विश्वास का वो रिश्ता ..जिसे लेकर हम साथ चले थे उस रोज...और जिसे सीने से लगाये ही हम बिछड़े थे उस रोज...

याद है न वो दोनों दिन...तारीखें क्या थी वो दोनों.....चलो!!! तुम बताओ!!

है यार मेरा अपना शाईर जो मेरे दिल के अंदर रहता है

तड़प के वो है पूछ रहा, तू आखिर जिन्दा कैसे रहता है

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार सितंबर 3, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/6659


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